इन्द्रियों के दास बनना कितना घातक

Anamika Prakash Shrivastav | 23-Jun-2016

Views: 2853
Latest-news
शरीर, इन्द्रियां एवं मस्तिष्क के रूप में मनुष्य को परमात्मा से जो अनुदान मिले हैं, वे अद्भुत हैं । उनके सदुपयोग तथा सुनियोजन की फलश्रुतियाँ भी उतनी ही विलक्षण हो सकती हैं । पर उतना ही सच यह भी है कि इन्द्रियां एवं ज्ञानेन्द्रियां उच्छृंखल हो जायें - मनमाना बरतने लगे तो पतन-पराभव का मार्ग प्रशस्त होने लगता है । वे वरदान या अभिशाप दोनों ही सिद्ध हो सकती हैं । चयन की स्वतन्त्रता मनुष्य को पूरी तरह मिली हुई है कि वह इन्हें किस दिशा में नियोजत करें । विषयों की आसक्ति से विरत रहकर उनका स्वाभाविक उपयोग मनुष्य के विकास में सहायक हो सकता है । आत्मिक विकास में भी शरीर एवं इन्द्रियों का उपयोग है । साधना के उपादान शरीर की इन्द्रियां तथा मन ही हैं । वे सहचर बन जायें तो कठिन से कठिन मंजिल पर पहुंचना सुगम हो सकता है । मन के नियम अद्भुत हैं । जिससे मनुष्य भयभीत होता है, उससे गहरे में प्रभावित भी होता है । सौन्दर्य को देखकर आँखें बन्द कर लेने वाला उससे अधिक प्रभावित होता है जो नेत्रों को खोले हुए है वस्तुतः आँखें बन्द करने वाला सौन्दर्य की वासना से इतना भयभीत है कि कहीं वह आकर्षण उसे जकड़ न ले । पर आँखें बन्द कर लेने से विचारों पर लगाम तो लगती नहीं । मन के भीतर और भी तीव्र वेग से सौन्दर्य का चिन्तन शुरु हो जाता है । बहुत से लोग संसार से भयभीत होकर स्वप्न के संसार में प्रविष्ट हो जाते हैं । जिस वाह्य रस से मुख मोड़ा था, वह मन के भीतर ही भीतर और भी प्रगाढ़ होने लगता है । स्वप्न में तो मन और भी उन्मुक्त होकर अपना संसार स्वयं निर्मित कर लेता है । मन की अतृप्त वासनाएं और भी प्रबल रूप में सामने आती हैं । बहिरंग जगत जो संकोचवश अवरोधक बना हुआ था, वह भी दूर हो जाता है । रस परित्याग का अर्थ - इन्द्रियों को नष्ट कर देना नहीं - उनके प्रति मन की आसक्ति का परित्याग है । इन्द्रियां अत्यन्त उपयोगी हैं । उनसे प्राप्त जानकारियाँ अद्भुत हैं । सूचनाएं, संवेदनाएं वाह्य जगत से लेकर वे ही आती तथा अनुभूति का माध्यम बनती हैं पर यदि मन उन अनुभूतियों में लीन नहीं होता, सजग बना रहता है तो किसी प्रकार का खतरा नहीं है । मन जब रसों में डूबा रहता है, तो इन्द्रियां चेतना की मालिक हो जाती हैं । यही इन्द्रियां जब चेतनसत्ता के मार्गदर्शन पर चलती हैं तो त्याग की प्रवृत्ति चल पड़ती है । इन्द्रियां जब सहयोगी बन जाती हैं चेतना की, तो आसक्ति का डर नहीं रहता । हमारी इन्द्रियों से हमारा जो सम्बन्ध है, वह मालिक का है या गुलाम का, इस तथ्य पर चेतना का विकास या पतन निर्भर करता है । इन्द्रियों के संकेत पर चेतना यदि गतिशील है, तो इसका अर्थ है, वासना से हम जकड़े हुए हैं । यदि चेतना उनकी मालिक है तो रसों का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता । इन्द्रियां ऐसी स्थिति में शुद्ध हालत में रहती हैं । जिस योगी की इन्द्रियाँ परिशुद्ध हैं, उसके देखने, सुनने, स्पर्श करने आदि का ढंग अन्य व्यक्तियों से भिन्न स्तर का होगा । वासना से रहित महावीर, बुद्ध, कृष्ण, ईसा की आँखों में जो तेज था वह अन्यों में नहीं होता ऐसे व्यक्तियों के स्पर्श में भी दिव्यता का समावेश रहता है, जिसका लाभ समय-समय पर उपयुक्त पात्रों को मिलता रहता है । अधिकांश व्यक्तियों की इन्द्रियां अपना मार्ग भूल जाती हैं । मूर्छित मालिक के नौकर सम्यक् नहीं रहते। उसकी इन्द्रियों के बीच कोई तालमेल नहीं रहता । भोगी की सभी इन्द्रियां उसे विपरीत दिशाओं में खींचती हैं। आँखें कुछ देखना चाहती हैं, कान कुछ सुनना चाहते हैं, हाथ कुछ स्पर्श करना चाहते हैं । इन सबके बीच परस्पर विरोध है । यह विक्षिप्त चेतना के खण्डित व्यक्तित्व के लक्षण हैं । इससे जीवन में अगणित असंगतियाँ पैदा होती हैं । अधिकांश व्यक्ति आंख की बात मानकर चलते हैं । जीवन व्यापार में वह बड़ी प्रभावशाली हैं भी । चुनावों में प्रायः नब्बे प्रतिशत काम आंखें करती हैं । दूसरी इन्द्रियों की बिना परवाह किये लोग आँख की बात मान भी लेते हैं । फलतः दूसरे ही दिन से कठिनाई शुरू हो जाती है । आंख कहती है, चेहरा सुन्दर है पर उसकी अभिव्यक्ति को नाक और कान भी स्वीकार कर लें, आवश्यक नहीं । आंख का आधिपत्य मानने को वे तैयार नहीं होते । पाँचों इन्द्रियों को जोड़ने वाला केन्द्र मन स्वयं मूर्छित हालत में पड़ा रहता है । रसों के भोग में सदैव शराबी की तरह डूबा रहता है । चेतना प्रसुप्त पड़ी रहती है, कोई निर्णय नहीं ले पाती है । पाँचों इन्द्रियों के अलग-अलग वक्तव्य इतनी जटिलता पैदा कर देते हैं कि मन द्वन्दों से भर जाता है । भीतर की चेतना जगी रहने पर वह असंगति नहीं पैदा होने पाती । इन्द्रियों की ढपली अलग-अलग नहीं बजती । इन्द्रियों की गति में एक दिशा एक लय आ जाती है जबकि मूर्छित मनुष्य इन्द्रियों के द्वारा विभिन्न रास्तों पर खींचा जाता है । निरर्थक भाग-दौड़ में ही उसकी सारी सामथ्र्य नष्ट हो जाती है । जीवन निष्फल, निष्प्रयोजन चला जाता है। आद्य शंकराचार्य ने रसों को इन्द्रियों का आहार माना है । कान जो सुनते हैं, वह कान का भोजन है, मुंह जो ग्रहण करता है वह उसका आहार है, दृश्य आंख का भोजन है पर उन सबमें चुनाव का होना आवश्यक है। हर बात सुनी जाये, हर चीज देखी जाय, हर स्वाद ग्रहण किया जाय, यह आवश्यक नहीं । जो सार्थक, उपादेय तथा आत्मविश्वास में सहायक हैं, उन रसों को भीतर जाने दिया जाये, निरर्थक को बाहर ही छोड़ दिया जाये। पर उपयोगी, अनुपयोगी का चुनाव करे कौन? आंखों में देखने की तो क्षमता है पर चुनने की नहीं । कान सुन सकते हैं पर उचित अनुचित के बीच भेद नहीं कर सकते । स्वादेन्द्रिय सार्थक-निरर्थक के बीच भेद नहीं कर पातीं, वह मात्र स्वाद की अनुभूति कर पाती हैं जिसे चुनाव करना चाहिए वह चेतना तो प्रसुप्त-मूर्छित पड़ी रहती है । फलतः इन्द्रियां सार्थक-निरर्थक सभी संवेदनाओं को भीतर भरती रहती हैं । मन के भीतर निरर्थक अनुभूतियों एवं विचारों का कबाड़ एकत्रित होता जाता है । मन का यदि किसी प्रकार आॅपरेशन कर सकना सम्भव हो सके तो अधिकांश के भीतर अनर्गल विचारों के कूड़े का अम्बार जमा दिखायी देगा । देखने, सुनने, स्वाद लेने, पढ़ने आदि में चुनाव दृष्टि के न होने से ही ऐसा होता है । मन में क्या-क्या विचार भरे हुए हैं, जैसी अनुभूतियाँ भरी पड़ी हैं, किस तरह की आकांक्षाएं उठ रही हैं, इसे किसी प्रकार कागज पर नोट किया जा सके तो मालूम होगा कि एक मोटी-सी नोट बुक तैयार हो गयी। उन्हें मन में जमा करने में विभिन्न इन्द्रियों की कितनी शक्ति लगी, इसका लेखा-जोखा लिया जा सके तो मालूम होगा कि अधिकांश मानसिक ऊर्जा तो सचमुच ही व्यर्थ में नष्ट हो गयी । सही चुनाव करके यदि उसे उपयुक्त दिशा में लगाया गया होता तो उपयोगी - सार्थक परिणाम भी सामने आते । इन्द्रिय-संयम का अर्थ न केवल इन्द्रिय निग्रह से है वरन् यह भी है कि शक्ति को सही दिशा में नियोजित भी किया जाय । शक्तियों को फेंकते रहने से वार्धक्य एवं फिर मृत्यु भी जल्दी आ धमकती है, कुछ सृजन का कार्य नहीं हो पाता । मृत्यु जो आत्मसन्तोष का कारण - परम आनन्द का सुअवसर बन सकती थी, वह आत्मघात-सी प्रतीत होती तथा उतनी ही पीड़ादायक सिद्ध होती है । असन्तुष्ट जीवात्मा को ऐसा प्रतीत होता है जैसे सब कुछ व्यर्थ चला गया । इस मूच्र्छना से बाहर निकलने के लिए आवश्यक है कि अब तक जो इन्द्रियों का प्रवाह था - मन की गति थी, उन्हें उलट दिया जाय । इसके लिए आवश्यक है कि इन्द्रियों को साधन माना जाए - उन्हें अपना गुलाम समझा जाय । चंचल मन भी आत्म चेतना पर किसी प्रकार हावी न होने पाये, वह अनुचर बना रहे । साथ ही वस्तुओं को कभी भी अतिशय महत्व न दिया जाय, उन्हें कभी भी साध्य न समझा जाय, साधना तक ही सीमित रहा जाय । सदा इसके लिए सचेष्ट रहें कि अपनी मिलकियत वस्तुओं तथा इन्द्रियों के हाथों न सौंप दी जाय ।